मंगलवार, 1 सितंबर 2020

हरीशंकर परसाई

---//श्री हरिशंकर परसाई//--- 

उमेश जबलपुरी


         व्यंग्य के श्री गणेश हरिशंकर परसाई थेजिनका जन्म 22 अगस्त 1922 को जमानीहोशंगाबाद .प्रमें हुआ था लेकिन शासकीय रिकार्डों में उनके जन्म तारीख का सन् 1924 दर्जहै। श्री परसाई ने नागपुर विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम.किया और सन् 1957 से स्वतंत्र लेखनप्रारंभ कियावसुधा नामक साहित्य पत्रिका को उन्होंने निकालाइस बीच श्री हरिशंकर परसाई नेकई नौकरियाॅ छोड़ीमास्साब होने का सुख भी उठाया। जंगल विभाग की नौकरी कीट्रेनिंगकालेज में भी नौकरी की थी। 


श्री हरिशंकर परसाई के पिता का नाम श्री झुम्मकलाल परसाई और माता का नाम श्रीमतीचम्पाबाई परसाई था। श्री परसाई जी के पिता पाॅच भाई-बहनों में से केवल एक बहन की शादीकर गुजर गये। बचपन में माॅ 1936 के प्लेग में गुजर गई तब ये तेरह साल के थे। सारी पारिवारिकजिम्मेदारियाॅ श्री परसाई के कन्धों पर  गई और आजीवन अपनी विधवा बहन तथा उसके बच्चोंका पालन-पोषण करते रहे और इस आपाधापी में वे विवाह करना भूल गये और आजीवन कुंवारेरहे।  


दैनिक देशबन्धु समाचार-पत्र में प्रसिद्ध काॅलम ’’पूछे परसाई से’’ बहुत लोकप्रिय हुआजिसमें येप्रश्नों का उत्तर दिया करते थे। इसके अलावा नई दुनिया समाचार-पत्र में सुनो भाई साधोनईकहानियों में पाॅचवा काॅलमउलझी-सुलझी कल्पना में और अंत में शीर्षक से स्तम्भ लेखन कार्यभी किया। सन् 1947 में जबलपुर से प्रकाशित पत्रिका नर्मदा के तट से उनकी पहली रचनाप्रकाशित हुई। 


श्री हरिशंकर परसाई माक्र्सवादी विचारधारा से प्रभावित थे। वे जनता के लेखक के रूप में जनताके बीच लोकप्रिय हुए। उनके द्वारा लगातार खोखली होती जा रही राजनीतिकसामाजिकआर्थिक व्यवस्था में पिसते मध्यमवर्गीय परिवार की व्यथावेदनाकष्ट को सच्चाई के साथ प्रकटकिया और सामाजिक पाखण्ड जीवन मूल्यों की धज्जियाॅ उड़ाती परम्पराओं को विवेक औरसकारात्मक रूप से प्रकट किया। उनकी व्यंग्य रचनाएं गुदगुदी पैदा  करके मनुष्य को कुछ करनेसोचनेसमझने बाध्य करती है। 


श्री प्रेमचन्द के बाद श्री हरिशंकर परसाई ने सामाजिकआर्थिक और राजनैतिक विषयों में सटीकतीखासरल लेखन किया। उनकी भाषा सामान्य थीउनकी रचनाओं में जनजीवन की बोली केदर्शन होते थेएक-एक शब्द में व्यंग्य और तीखापन प्रकट होता था। उनका मानना था कि वेसुधार के लिए बदलने के लिए लिखते हैं। सामाजिक अनुभव के बिना सच्चा और वास्तविकसाहित्य लिखा ही नहीं जा सकता। उनका दर्शन था कि ’’ईमानदारी समाज में बेवकूफी का पर्यायबन गई हैजिसे बेईमानी का अवसर प्राप्त नहीं है वहीं समाज में ईमानदार है’’ बेईमानी के पैसे मेंही पोष्टिक तत्व विद्यमान है। रोटी खाने से कोई मोटा नहीं होताचन्दा या घूस खाने से मोटा होताहै। उनकी इसी साफगोईनिडरता से लिखी बातें मन पर असरयादगंूजप्रहारसमझ पैदाकरती है। 


व्यंग्य को श्री हरिशंकर परसाई ने हल्के-फुल्के मनोरंजन की परम्परागत परिधि से हटाकरसाहित्यिक विद्या का दर्जा दिलवाया था। ऐसा नहीं है कि इसके पहले व्यंग्यकार नहीं हुए या व्यंग्यरचनाएं नहीं लिखी गई। भारतेन्दु हरिशचन्द्रजी.पीश्रीवास्तव आदि साहित्यकारों ने व्यंग्यरचनाएं लिखी थी परन्तु कोई साहित्यकार विशुद्ध रूप से व्यंग्यकार कहलाना नहीं चाहता थाक्योंकि अकेले व्यंग्य लिखकर साहित्य में उनका स्थान सुरक्षित नहीं था। इस चक्रव्यूह को श्रीपरसाई ने तोड़ा था और व्यंग्य को शुद्र से क्षत्रीय बनाया था। व्यंग्य को ब्राम्हण इसलिए नहीं कहसकते हैं क्योंकि वह कीर्तन करता है और व्यंग्यकार को कीर्तन करना आता नहीं है। 


अभावत्यागगर्दिश और संघर्ष में पले बड़े श्री हरिशंकर परसाई  अत्यन्त कटुनिर्मलधोबीपछाड़ आदमी थे। वे चूहों पर सोये मनुष्यनुमा बिच्छु एवं साॅपों ने उन्हें काटा लेकिन समाज’’बेचारा’’ परसाई पैदा  कर पाया। उनका मानना था कि वे निहायत बेचैनसंवेदनशील आदमी हैंइसलिए उन्होंने कष्ट और संघर्ष के बीच लिखना प्रारंभ किया और बिना टिकिट सफर करनाउधार माॅगने की कलाबेफिक्रीकोई चिंता नहीं जैसे मूलमंत्र के साथ लेखन प्रारंभ किया। 


श्री हरिशंकर परसाई ने अपने पार्टनरमित्रगजानंद माधव मुक्ति बोध के मार्ग पर चलते हुए, ’’उससे बेहतर चाहिएपूरी दुनिया साफ करने के लिए मेहतर चाहिएइस ब्रम्ह वाक्य के साथव्यंग्य लेखन प्रारंभ किया और उसे साहित्य का दर्जा दिलवाया। उनकी नजर में व्यंग्य व्यापकसामाजिकआर्थिकराजनीतिक परिवेश की विसंगतिमिथ्याचारअसामंजस्यअन्याय आदिकी तह में जानाकारणों का विश्लेषण करनाउन्हें सही परिप्रेक्ष्य में देखना व्यंग्य है। उनकेअनुसार व्यंग्य चेतना को झकझोर देता हैव्यक्ति को उसके सामने खड़ा कर देता हैआत्म-साक्षात्कार कराता हैसोचने को बाध्य करता हैव्यवस्था की सडांध को दर्शाता हैपरिवर्तन कीओर प्रेरित करता है। यही कारण है कि जितना व्यापक परिवेश होगाजितनी गहरी विसंगतीहोगीजितनी तिलमिला देने वाली अभिव्यक्ति होगी व्यंग्य उतना ही सार्थक होगा। 


उनका मानना था कि व्यंग्य मानव सहानुभूति से पैदा होता है। वह मनुष्य को बेहतर बनाना चाहताहै। वह मनुष्य से कहता है कि तू अधिक सच्चान्यायीमानवीय बन। यदि मनुष्य के प्रतिव्यंग्यकार को आशा नहीं हैयदि वह जीवन के प्रति कनसन्र्ड नहीं है तो वह क्यों रोता हैउसकीकमजोरियों पर। जो यह कहते हैं कि व्यंग्य लेखक निमर्मकठोर और मनुष्य विरोधी होता है औरबुराई ही बुराई दिखती हैउनका कहना है कि डाॅक्टर के पास जो लोग जाते हैं उन्हें वह रोग बताताहै तो क्या डाॅक्टर कठोर है। 


व्यंग्य जैसे गंभीर विषय को विनोदहास्यमाखौलमजा से जोड़ा जाता है। बडा मजा आयाअच्छे छक्के छुडा दियेअच्छी खिंचाई कीखाल खींचकर रख दीक्या लिखा बोलती बंद कर दीक्या बत्ती दी हवा टाईट कर दी जैसे प्रमाणपत्र व्यंग्यकारों को दिये जाते हैं जबकि कोई व्यंग्यलेखक व्यंग्य जैसी सस्ती लोकप्रियता प्राप्त करने या किसी को नीचा दिखाने अथवा अपमानितकरनेअपने हाथ से अपनी पीठ थपथपाने नहीं लिखता है। जिस व्यवस्था के सभी शिकार हैउसव्यवस्था का वह भी शिकार है। सब चुप हैंउसमें साहस हैताकत हैलड़ने की हिम्मत है। वहकलम उठा लेता है और व्यंग्यकारकार्टूनिस्टजोकरमसखराभांड लोगों की नजर बन जाताहै। 


व्यंग्य और हास्य को परिभाषित करते हुए उन्होंने कहा कि यह तय करना भी कठिन है कि कहाॅहास्य खत्म होता है और व्यंग्य शुरू होता है। उन्हें व्यंग्य में हंसी भी  सकती है इससे वह हास्यनहीं हो जातामुख्य बात हैवर्णित वस्तु का उद्देश्य और सारोकार है। व्यंग्य में बात सरल सीधीनहीं रहती। वक्रता लिए चेतना पर चोट करती है। 


उनका मानना था कि पीड़ितमजबूरगरीबशारीरिक विकृति का शिकारनारीनौकर आदि कोहास्य का विषय बनाना कुरूचिपूर्ण और क्रूर है। लेखक को यह विवेक होना चाहिए कि किस परहंसना और किस पर रोना। पीटनेवाले पर भी हंसना और पिटनेवाले पर भी हंसना विवेकहीन हास्यहै। ऐसा लेखक संवेदना शून्य होता है। 


श्री परसाई के अनुसार आदमी हंसता क्यों हैपरम्परा से हर समाज की कुछ संगतियाॅ होती हैसामंजस्य होते हैंअनुपात होते हैं। ये व्यक्ति और समाज दोनों के होते हैं। जब यह संगति गड़बड़होती है तब चेतना में चमक पैदा होती है। इस चमक से हॅसी भी  सकती है और चेतना मेंहलचल भी पैदा हो सकती है। 


व्यंग्य के साथ जो हंसी आती हैवह दूसरे प्रकार की होती है। उस हंसी में की गई गलतियाॅसमझ में आने वाला व्यवहारव्यवस्था और विसंगतियों के भागीदार होने का दुख छुपा होता है जोभूतकाल में पैदा होने के कारण एक हंसी उत्पन्न करता है और आगे सोचनेसमझने बाध्य करताहै। 


उनके बड़े भाई श्री नर्मदाप्रसाद खरे के अनुसार श्री परसाई का व्यंग्य इतना सजगतीव्रतीखाचेतन्य था जिसमें वर्तमान सामाजिक जीवन की संड़ांधविरूपताविसंगती के साथ ही जीवन केप्रति आस्था व्यक्त होती थीवे घोर यथार्थवादी लेखक विचारक थे उन्होंने व्यावहारिक जीवन मेंभीषण संघर्ष किया इसलिए उन्होंने जीवन के हर संदर्भ में जुझारू रचानाएं की के साथ जुड़े हुए है।वे राजनीतिसमाजसंस्कृतिसाहित्य और कला के यथार्थ वाहक है। यही कारण है कि उनकेव्यक्तितत्व में कबीर का फक्कड़पन तथा उनके लेखन में निराला की जीवंतता समन्वित है। 


प्रसिद्ध चित्रकार श्री जोगेन चैधरी ने सही कहा है कि हरिशंकर परसाई हिन्दी के पहले रचनाकारहैंजिन्होंने व्यंग्य को विधा का दर्जा दिलाया और उसे हल्के-फुल्के मनोरंजन की परम्परागतपरिधि से उबारकर समाज के व्यापक प्रश्नों से जोड़ा है। उनकी व्यंग्य रचनाएं हमारे मन में गुदगुदीपैदा नहीं करतीबल्कि हमें उन सामाजिक वास्तविकताओं के आमने-सामने खड़ा करती हैजिनसेकिसी भी व्यक्ति का अलग रह पाना असंभव है। लगातार खोखली होती जा रही हमारीसामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था में पिसते मध्यमवर्गीय मन की सच्चाईयों को उन्होंने बहुत हीनिकटता से पकडा है। सामाजिक पाखण्ड और रूढ़िवादी जीवन मूल्यों की खिल्ली उड़ाते हुएउन्होंने सदैव विवेक और विज्ञान सम्मत दृष्टि को सकारात्मक रूप से प्रस्तुत किया है। उनकीभाषा-शैली में खास किस्म का अपनापन हैजिससे पाठक ये महसूस करता है कि लेखक उसकेसिर पर नहींसामने बैठा है। 


श्री हरिशंकर परसाई जीवन के अंतिम क्षण तक बिस्तर में पड़े होने के बाद भी लिखते रहेउनकेलेखन की गर्दिश अंत तक खत्म नहीं हुई। उनके द्वारा समाज में आवश्यक चिर-परिचत जीवमुफ्तखोरअनशनकारीआईल किंगबातूनीदल-बदल वालेपर ध्यान दिया गया है तोघायलबसंतअकालउत्सवहरिजन को पीटने का यशठिठुरता हुआ गणतंत्रआदि राष्ट्रीयत्यौहारों का वर्णन किया है। वहीं अपनी रचनाओं में लोकतंत्र के भेड़-भेड़ियों की ताकत को दर्शायाहै। आदमी के नस में रच-बस गई बेईमानी की परतपवित्रता का ढोंगवैष्णव की फिसलनदोनाक वाले लोगठण्डा शरीफ आदमी कीउन्होंने नब्ज पहचान कर उनको दर्पण दिखाया है। 


उनका मानना था कि भारत में जूते खाने का रिवाज हैमारने का नहीं है। लड़के शादी के बाजार मेंमवेशी की तरह बिकते हैंहम भैंस का दूध पीते हैं लेकिन गाय को माॅ कहते हैं। देश में लक्ष्मी केकारण उल्लूओं की कदर है। हजारों अपराध करने के बाद भी लोग उन्हें शहर की नाक मानते हैं।भूखे कुत्तों को रोटी खिलाओ तो वह नहीं काटेगाआदमी का ठिकाना नहीं है। बिना वजन केआवेदन पर कोई ध्यान नहीं देता। लोकतंत्र में केवल ताकतवर भेड़ ही मताधिकार का प्रयोग करपाते हैं। इस प्रकार की बहुत सी सामाजिक विसंगतियों को उन्होंने उजागर किया है। 


श्री हरिशंकर परसाई को सन् 1982 में विकलांगश्रृद्धा के दौर के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कारप्राप्त हुआ थाउन्हें केन्द्रीय साहित्य अकादमी पुरस्कारशिखर सम्मान जैसे कई सम्मान उनकेदूसरे कहानी संग्रह और रानी नागमती की कहानी के लिए दिये गये थे। उनके निबन्ध पाठ्यपुस्तकों में शामिल किये गये थे। उनके लिखे व्यंग्य पर कई नाटक खेले गये और वे व्यंग्य विद्या केअमर लेखक माने जाते हैं। वे लोक विश्वास के रूप में उभरे और व्यंग्य को लोक विश्वास कीचरमसीमा तक पहुचायें।



                                         (उमेश कुमार गुप्ता)

                                          वेदान्त आई-आठ 

                                        संत आशाराम नगर

                                     बाग सेवनिया भोपाल,.प्र.

                                 gupta.umesh0@gmail.com