शनिवार, 20 अगस्त 2016

लोहा पीटा समाज lohapita



 
                        लोहा पीटा समाज



                             परिचय-

                                        1576 में हल्दी घांटी का युद्ध अकबर और महाराणा प्रताप के मध्य हुआ था और चित्तोड़ राज्य अकबर द्वारा छीन लिये जाने के बाद महाराणा प्रताप ने अपने बेटे उ दयसिंह व मुख्य सलाहकार भामाशाह के साथ अरावली की पहाड़ियों पर निर्वासियत जीवन गुजारा था। उनके साथ काफी तादाद में समर्थक भी थे, जिन्हें अब घुमंतु जनजाति बिहार में ’’पछइहां लोहार’’ म.प्र., राजस्थान में गडै़या लोहार के नाम से जाना जाता है। आम बोल चाल की भाषा में इन्हें लोहा-पीटा कहा जाता है।



                                   महाराणा प्रताप ने जीते जी अकबर की दास्ता नहीं स्वीकार की थी, अपने को महाराणा प्रताप का वंशज बताने वाले गड़ैया लोहार विभिन्न कस्बों व देहातों में बैलगाड़ी और बरसाती के सहारे आज भी निर्वासियत जीवन व्यतीत कर रहे हैं। उनकी कौम की पूरी जिंदगी आज भी बैलगाड़ी और बरसाती में ही बीतती है। ये लोग श्राप के कारण एक जगह रहकर स्थायी रूप से जीवन नहीं बिताते है। उनकी यह कसम है कि चित्तोड़गढ़ राज्य वापस न होने तक उनकी कौम यूं ही निर्वासियत जीवन गुजारती रहेगी।



                               अधिकांशतः ये लोग राजस्थान और मध्यप्रदेश के मालवा क्षेत्र से संबधित हैं, और इनका काम कृषि और घरेलू लोहे संबंधी उपकरण कुल्हाड़ी, दांतला, सब्बल आदि बनाने का है। इसके अलावा ये लोग गाय, बैल, बकरी की बिक्री भी करते हैं। इनके आराध्य बाबा रामदेव जेसलमेर स्थित देवता हैं, जहां प्रतिवर्ष इनके परिवार से एक व्यक्ति पैदल देश में कहीं पर भी हो यात्रा करता है। यह लोग पूरे देश में घूम कर व्यापार करते हैं।


                                      विवाह

                                   इनके यहां बाल विवाह होता है। लड़की के जन्म लेते ही उसके 2-3 साल की उम्र में ही उसकी शादी तय कर दी जाती है और 20-22 साल बाद लड़की की शादी होती है। जिससे शादी बचपन में तय होती है, सामान्यतया उससे ही बड़े होकर शादी होती है। शादी तोड़ने वाले पक्ष को पूरे गांव का जुर्माना भरना पड़ता है और जाति पंचायत का फैसला अंतिम माना जाता है।



                                 इन जनजाति में लड़के वाले लड़की की शादी के लिये खोज करते हैं और दान दहेज लड़के वाले लड़की को शादी के समय देते हैं। वर पक्ष के घर कन्या पक्ष बारात लेकर जाता है और दहेज भी वसूल करता है। वर पक्ष बरातियों की आव-भगत के बाद ’दूल्हे’ को ’दुल्हन’ के साथ बिदा किया जाता है। एक माह तक चलने वाले बरातियों के आव-भगत में पहले 15 दिन तक कन्या पक्ष की महिलाएं होती है, बाद में 15 दिन पुरूष बराती होते हैं। बारात बैलगाड़ी में जाती है। इनके यहां बैंड बाजा वगैरः नहीं बजाये जाते हैं।


                                     विवाह में भोजन में मांस मदिरा का चलन नहीं है। दहेज के रूप में एक जोड़ी बैल, बैलगाड़ी व लोहारगिरी का पूरा सामान कन्या को दिया जाता है। दुल्हन, दूल्हे को बिदा कराकर अपने कुनबे ले आती है और शादी के तुरंत बाद नव दम्पत्ति का परिवार अलग कर दिया जाता है। उस दिन से उन्हें अपना भरणपोषण खुद करना पड़ता है।

इनका काम सेना के हथियार बनाना था। गाड़ी मंें चलने के कारण इनका नाम गढ़रिया लोहार पड़ा है। इनमें राठौड़, सिसौदिया, चैहान आदि जाति के लोग शामिल हैं, जो अधिकांश चित्तोड़ गढ़ मेवाड़ क्षेत्र से संबंधित हैं। इनके यहां शिक्षा की ओर कोई ध्यान नहीं दिया जाता है और बच्चे बहुत कम शिक्षा प्राप्त करते हैं। बचपन से ही बच्चों को कार्य में लगा दिया जाता है। महिलाऐं पुरूषों के बराबर कार्य करती हैं और घन पिटने में सहयोग करती हैं।


                          वेषभूषाअपनी परम्परागत रंग बिरंगी वेषभूषा के कारण सारे समाज में अलग से पहचाने जाते हैं। इनकी महिलाऐं रंग बिरंगी राजस्थानी, मेवाड़ी पोषाक पहनती है और परपम्रागत चांदी के आभूषण धारण करती हैं।
                                विवाहित और अविवाहित महिलाऐं गहरे कलर की पोषाक धारण करती हैं, जबकि विधवा महिलाऐं हरा, काला और नीले गहरे रंग के वस्त्र पहनती हैं। इनके कमरे के नीचे पहने जाना वाला वस्त्र कलीदार घाघरा और सिर पर पहने जाने वाला वस्त्र ओढ़ना कहलाता है।



                               हाथों में जो कलाई से लेकर बांह तक की चूड़िया पहनी जाती है उसे बोरला इवतसं कहते हैं और यह कई प्रकार के जेवर पहनती हैं, सिर पर और माथे पर जो पहनी जाती है उसे ठपबीनकपय ठींदअंतपं कहते हैं तथा हाथों में पहनने वाली चूड़ी को ज्ञंकनसं कहते हैं। इसके अलावा ताबिज, पेन्डिल ज्ञंदजीप नाक में पहनते हैं और सिक्कों वाली हार गले में पहनते हैं। ये लोग गुदना शरीर के विभिन्न हिस्से में खुदवाते हैं।

                            गढ़िया लोहार मर्द अंगरखा धोती पहनते हैं और गोल साफा स्टाइन में पगड़ी बांधते हैं, जो लाल पीले, सफेद रंग की होती है। धोती की स्टाइल जपसंदहप कहलाती है। इसके अलावा सोने की मांलाऐं मुरकी पहनते हैं और कान में पहनने वाली रिंग झेला कहलाती है। शादी के समय पहनने वाला ताबिज चीनस कहलाता है।

                                       खानपान-रहन सहन

ये लोग खाने में बाजरा की रोटी, चने की रोटी खाते हैं। आधुनिकता से ये लोग बहुत दूर हैं। टी.वी., दूरदर्शन रेडियो आदि से इनको कोई सारोकार नहीं है। मनोरंजन के साधानों में आपस में मिल बैठकर नाच गाना शादी विवाह के मौकों पर करते हैं।



                              इनकी अपनी भाषा में राजस्थानी, मेवाड़ी, मालवा भाषा के शब्दों का प्रयोग होता है। इनके द्वारा बांस से बरसाती की झोपड़ी बनायी जाती है जो हर दृष्टि से सुरक्षित रहती है। लेकिन आधुनिकता की दौड़ में मशीनीकरण के कारण इनकी रोजी रोटी में संकट उत्पन्न हो गया है। ये लोग साल के 8 महीने घूम कर काम करते हैं और चार महीने एक जगह टिक कर बरसात में रहते हैं, इस दौरान कोई काम धंधा नहीं करने के कारण जो 8 महीने कमाया उसीसे गुजर बसर करते हैं।









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