हरीशंकर परसाई
---//श्री हरिशंकर परसाई//---
उमेश जबलपुरी
व्यंग्य के श्री गणेश हरिशंकर परसाई थे, जिनका जन्म 22 अगस्त 1922 को जमानीहोशंगाबाद म.प्र. में हुआ था लेकिन शासकीय रिकार्डों में उनके जन्म तारीख का सन् 1924 दर्जहै। श्री परसाई ने नागपुर विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम.ए. किया और सन् 1957 से स्वतंत्र लेखनप्रारंभ किया, वसुधा नामक साहित्य पत्रिका को उन्होंने निकाला, इस बीच श्री हरिशंकर परसाई नेकई नौकरियाॅ छोड़ी, मास्साब होने का सुख भी उठाया। जंगल विभाग की नौकरी की, ट्रेनिंगकालेज में भी नौकरी की थी।
श्री हरिशंकर परसाई के पिता का नाम श्री झुम्मकलाल परसाई और माता का नाम श्रीमतीचम्पाबाई परसाई था। श्री परसाई जी के पिता पाॅच भाई-बहनों में से केवल एक बहन की शादीकर गुजर गये। बचपन में माॅ 1936 के प्लेग में गुजर गई तब ये तेरह साल के थे। सारी पारिवारिकजिम्मेदारियाॅ श्री परसाई के कन्धों पर आ गई और आजीवन अपनी विधवा बहन तथा उसके बच्चोंका पालन-पोषण करते रहे और इस आपाधापी में वे विवाह करना भूल गये और आजीवन कुंवारेरहे।
दैनिक देशबन्धु समाचार-पत्र में प्रसिद्ध काॅलम ’’पूछे परसाई से’’ बहुत लोकप्रिय हुआ, जिसमें येप्रश्नों का उत्तर दिया करते थे। इसके अलावा नई दुनिया समाचार-पत्र में सुनो भाई साधो, नईकहानियों में पाॅचवा काॅलम, उलझी-सुलझी कल्पना में और अंत में शीर्षक से स्तम्भ लेखन कार्यभी किया। सन् 1947 में जबलपुर से प्रकाशित पत्रिका नर्मदा के तट से उनकी पहली रचनाप्रकाशित हुई।
श्री हरिशंकर परसाई माक्र्सवादी विचारधारा से प्रभावित थे। वे जनता के लेखक के रूप में जनताके बीच लोकप्रिय हुए। उनके द्वारा लगातार खोखली होती जा रही राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक व्यवस्था में पिसते मध्यमवर्गीय परिवार की व्यथा, वेदना, कष्ट को सच्चाई के साथ प्रकटकिया और सामाजिक पाखण्ड जीवन मूल्यों की धज्जियाॅ उड़ाती परम्पराओं को विवेक औरसकारात्मक रूप से प्रकट किया। उनकी व्यंग्य रचनाएं गुदगुदी पैदा न करके मनुष्य को कुछ करने, सोचने, समझने बाध्य करती है।
श्री प्रेमचन्द के बाद श्री हरिशंकर परसाई ने सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक विषयों में सटीक, तीखा, सरल लेखन किया। उनकी भाषा सामान्य थी, उनकी रचनाओं में जनजीवन की बोली केदर्शन होते थे, एक-एक शब्द में व्यंग्य और तीखापन प्रकट होता था। उनका मानना था कि वेसुधार के लिए बदलने के लिए लिखते हैं। सामाजिक अनुभव के बिना सच्चा और वास्तविकसाहित्य लिखा ही नहीं जा सकता। उनका दर्शन था कि ’’ईमानदारी समाज में बेवकूफी का पर्यायबन गई है, जिसे बेईमानी का अवसर प्राप्त नहीं है वहीं समाज में ईमानदार है’’। बेईमानी के पैसे मेंही पोष्टिक तत्व विद्यमान है। रोटी खाने से कोई मोटा नहीं होता, चन्दा या घूस खाने से मोटा होताहै। उनकी इसी साफगोई, निडरता से लिखी बातें मन पर असर, याद, गंूज, प्रहार, समझ पैदाकरती है।
व्यंग्य को श्री हरिशंकर परसाई ने हल्के-फुल्के मनोरंजन की परम्परागत परिधि से हटाकरसाहित्यिक विद्या का दर्जा दिलवाया था। ऐसा नहीं है कि इसके पहले व्यंग्यकार नहीं हुए या व्यंग्यरचनाएं नहीं लिखी गई। भारतेन्दु हरिशचन्द्र, जी.पी. श्रीवास्तव आदि साहित्यकारों ने व्यंग्यरचनाएं लिखी थी परन्तु कोई साहित्यकार विशुद्ध रूप से व्यंग्यकार कहलाना नहीं चाहता थाक्योंकि अकेले व्यंग्य लिखकर साहित्य में उनका स्थान सुरक्षित नहीं था। इस चक्रव्यूह को श्रीपरसाई ने तोड़ा था और व्यंग्य को शुद्र से क्षत्रीय बनाया था। व्यंग्य को ब्राम्हण इसलिए नहीं कहसकते हैं क्योंकि वह कीर्तन करता है और व्यंग्यकार को कीर्तन करना आता नहीं है।
अभाव, त्याग, गर्दिश और संघर्ष में पले बड़े श्री हरिशंकर परसाई अत्यन्त कटु, निर्मल, धोबीपछाड़ आदमी थे। वे चूहों पर सोये मनुष्यनुमा बिच्छु एवं साॅपों ने उन्हें काटा लेकिन समाज’’बेचारा’’ परसाई पैदा न कर पाया। उनका मानना था कि वे निहायत बेचैन, संवेदनशील आदमी हैंइसलिए उन्होंने कष्ट और संघर्ष के बीच लिखना प्रारंभ किया और बिना टिकिट सफर करना, उधार माॅगने की कला, बेफिक्री, कोई चिंता नहीं जैसे मूलमंत्र के साथ लेखन प्रारंभ किया।
श्री हरिशंकर परसाई ने अपने पार्टनर, मित्र, गजानंद माधव मुक्ति बोध के मार्ग पर चलते हुए, ’’उससे बेहतर चाहिए, पूरी दुनिया साफ करने के लिए मेहतर चाहिए, इस ब्रम्ह वाक्य के साथव्यंग्य लेखन प्रारंभ किया और उसे साहित्य का दर्जा दिलवाया। उनकी नजर में व्यंग्य व्यापकसामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक परिवेश की विसंगति, मिथ्याचार, असामंजस्य, अन्याय आदिकी तह में जाना, कारणों का विश्लेषण करना, उन्हें सही परिप्रेक्ष्य में देखना व्यंग्य है। उनकेअनुसार व्यंग्य चेतना को झकझोर देता है, व्यक्ति को उसके सामने खड़ा कर देता है, आत्म-साक्षात्कार कराता है, सोचने को बाध्य करता है, व्यवस्था की सडांध को दर्शाता है, परिवर्तन कीओर प्रेरित करता है। यही कारण है कि जितना व्यापक परिवेश होगा, जितनी गहरी विसंगतीहोगी, जितनी तिलमिला देने वाली अभिव्यक्ति होगी व्यंग्य उतना ही सार्थक होगा।
उनका मानना था कि व्यंग्य मानव सहानुभूति से पैदा होता है। वह मनुष्य को बेहतर बनाना चाहताहै। वह मनुष्य से कहता है कि तू अधिक सच्चा, न्यायी, मानवीय बन। यदि मनुष्य के प्रतिव्यंग्यकार को आशा नहीं है, यदि वह जीवन के प्रति कनसन्र्ड नहीं है तो वह क्यों रोता है, उसकीकमजोरियों पर। जो यह कहते हैं कि व्यंग्य लेखक निमर्म, कठोर और मनुष्य विरोधी होता है औरबुराई ही बुराई दिखती है, उनका कहना है कि डाॅक्टर के पास जो लोग जाते हैं उन्हें वह रोग बताताहै तो क्या डाॅक्टर कठोर है।
व्यंग्य जैसे गंभीर विषय को विनोद, हास्य, माखौल, मजा से जोड़ा जाता है। बडा मजा आया, अच्छे छक्के छुडा दिये, अच्छी खिंचाई की, खाल खींचकर रख दी, क्या लिखा बोलती बंद कर दी, क्या बत्ती दी हवा टाईट कर दी जैसे प्रमाणपत्र व्यंग्यकारों को दिये जाते हैं जबकि कोई व्यंग्यलेखक व्यंग्य जैसी सस्ती लोकप्रियता प्राप्त करने या किसी को नीचा दिखाने अथवा अपमानितकरने, अपने हाथ से अपनी पीठ थपथपाने नहीं लिखता है। जिस व्यवस्था के सभी शिकार है, उसव्यवस्था का वह भी शिकार है। सब चुप हैं, उसमें साहस है, ताकत है, लड़ने की हिम्मत है। वहकलम उठा लेता है और व्यंग्यकार, कार्टूनिस्ट, जोकर, मसखरा, भांड लोगों की नजर बन जाताहै।
व्यंग्य और हास्य को परिभाषित करते हुए उन्होंने कहा कि यह तय करना भी कठिन है कि कहाॅहास्य खत्म होता है और व्यंग्य शुरू होता है। उन्हें व्यंग्य में हंसी भी आ सकती है इससे वह हास्यनहीं हो जाता, मुख्य बात है, वर्णित वस्तु का उद्देश्य और सारोकार है। व्यंग्य में बात सरल सीधीनहीं रहती। वक्रता लिए चेतना पर चोट करती है।
उनका मानना था कि पीड़ित, मजबूर, गरीब, शारीरिक विकृति का शिकार, नारी, नौकर आदि कोहास्य का विषय बनाना कुरूचिपूर्ण और क्रूर है। लेखक को यह विवेक होना चाहिए कि किस परहंसना और किस पर रोना। पीटनेवाले पर भी हंसना और पिटनेवाले पर भी हंसना विवेकहीन हास्यहै। ऐसा लेखक संवेदना शून्य होता है।
श्री परसाई के अनुसार आदमी हंसता क्यों है? परम्परा से हर समाज की कुछ संगतियाॅ होती है, सामंजस्य होते हैं, अनुपात होते हैं। ये व्यक्ति और समाज दोनों के होते हैं। जब यह संगति गड़बड़होती है तब चेतना में चमक पैदा होती है। इस चमक से हॅसी भी आ सकती है और चेतना मेंहलचल भी पैदा हो सकती है।
व्यंग्य के साथ जो हंसी आती है, वह दूसरे प्रकार की होती है। उस हंसी में की गई गलतियाॅ, नसमझ में आने वाला व्यवहार, व्यवस्था और विसंगतियों के भागीदार होने का दुख छुपा होता है जोभूतकाल में पैदा होने के कारण एक हंसी उत्पन्न करता है और आगे सोचने, समझने बाध्य करताहै।
उनके बड़े भाई श्री नर्मदाप्रसाद खरे के अनुसार श्री परसाई का व्यंग्य इतना सजग, तीव्र, तीखा, चेतन्य था जिसमें वर्तमान सामाजिक जीवन की संड़ांध, विरूपता, विसंगती के साथ ही जीवन केप्रति आस्था व्यक्त होती थी, वे घोर यथार्थवादी लेखक विचारक थे उन्होंने व्यावहारिक जीवन मेंभीषण संघर्ष किया इसलिए उन्होंने जीवन के हर संदर्भ में जुझारू रचानाएं की के साथ जुड़े हुए है।वे राजनीति, समाज, संस्कृति, साहित्य और कला के यथार्थ वाहक है। यही कारण है कि उनकेव्यक्तितत्व में कबीर का फक्कड़पन तथा उनके लेखन में निराला की जीवंतता समन्वित है।
प्रसिद्ध चित्रकार श्री जोगेन चैधरी ने सही कहा है कि हरिशंकर परसाई हिन्दी के पहले रचनाकारहैं, जिन्होंने व्यंग्य को विधा का दर्जा दिलाया और उसे हल्के-फुल्के मनोरंजन की परम्परागतपरिधि से उबारकर समाज के व्यापक प्रश्नों से जोड़ा है। उनकी व्यंग्य रचनाएं हमारे मन में गुदगुदीपैदा नहीं करती, बल्कि हमें उन सामाजिक वास्तविकताओं के आमने-सामने खड़ा करती है, जिनसेकिसी भी व्यक्ति का अलग रह पाना असंभव है। लगातार खोखली होती जा रही हमारीसामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था में पिसते मध्यमवर्गीय मन की सच्चाईयों को उन्होंने बहुत हीनिकटता से पकडा है। सामाजिक पाखण्ड और रूढ़िवादी जीवन मूल्यों की खिल्ली उड़ाते हुएउन्होंने सदैव विवेक और विज्ञान सम्मत दृष्टि को सकारात्मक रूप से प्रस्तुत किया है। उनकीभाषा-शैली में खास किस्म का अपनापन है, जिससे पाठक ये महसूस करता है कि लेखक उसकेसिर पर नहीं, सामने बैठा है।
श्री हरिशंकर परसाई जीवन के अंतिम क्षण तक बिस्तर में पड़े होने के बाद भी लिखते रहे, उनकेलेखन की गर्दिश अंत तक खत्म नहीं हुई। उनके द्वारा समाज में आवश्यक चिर-परिचत जीवमुफ्तखोर, अनशनकारी, आईल किंग, बातूनी, दल-बदल वाले, पर ध्यान दिया गया है तोघायलबसंत, अकालउत्सव, हरिजन को पीटने का यश, ठिठुरता हुआ गणतंत्र, आदि राष्ट्रीयत्यौहारों का वर्णन किया है। वहीं अपनी रचनाओं में लोकतंत्र के भेड़-भेड़ियों की ताकत को दर्शायाहै। आदमी के नस में रच-बस गई बेईमानी की परत, पवित्रता का ढोंग, वैष्णव की फिसलन, दोनाक वाले लोग, ठण्डा शरीफ आदमी की, उन्होंने नब्ज पहचान कर उनको दर्पण दिखाया है।
उनका मानना था कि भारत में जूते खाने का रिवाज है, मारने का नहीं है। लड़के शादी के बाजार मेंमवेशी की तरह बिकते हैं, हम भैंस का दूध पीते हैं लेकिन गाय को माॅ कहते हैं। देश में लक्ष्मी केकारण उल्लूओं की कदर है। हजारों अपराध करने के बाद भी लोग उन्हें शहर की नाक मानते हैं।भूखे कुत्तों को रोटी खिलाओ तो वह नहीं काटेगा, आदमी का ठिकाना नहीं है। बिना वजन केआवेदन पर कोई ध्यान नहीं देता। लोकतंत्र में केवल ताकतवर भेड़ ही मताधिकार का प्रयोग करपाते हैं। इस प्रकार की बहुत सी सामाजिक विसंगतियों को उन्होंने उजागर किया है।
श्री हरिशंकर परसाई को सन् 1982 में विकलांग, श्रृद्धा के दौर के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कारप्राप्त हुआ था, उन्हें केन्द्रीय साहित्य अकादमी पुरस्कार, शिखर सम्मान जैसे कई सम्मान उनकेदूसरे कहानी संग्रह और रानी नागमती की कहानी के लिए दिये गये थे। उनके निबन्ध पाठ्यपुस्तकों में शामिल किये गये थे। उनके लिखे व्यंग्य पर कई नाटक खेले गये और वे व्यंग्य विद्या केअमर लेखक माने जाते हैं। वे लोक विश्वास के रूप में उभरे और व्यंग्य को लोक विश्वास कीचरमसीमा तक पहुचायें।
(उमेश कुमार गुप्ता)
वेदान्त आई-आठ
संत आशाराम नगर
बाग सेवनिया भोपाल,म.प्र.