कलचुरी
कलचुरी
कलचुरी हैहयवंशी राजाओं की एक शाखा है। इस वंश का आदि पुरूष सहस्त्रार्जुन कार्तवीय्र्य था। जो माहिष्मती में राम, परशुराम के जमाने में राज्य करता था। निमाड़ जिले का मान्धता ही माहिष्मती कहलाता था। सब लोगों को विदित है कि परशुराम ने कार्तवीय्र्यसे बैर ठानकर क्षत्रियों पर 21 बार आक्रमण किया परन्तु हैहय उसके मिटाने न मिटे। यदि परशुराम सालाना आक्रमण करता रहा हो तो कम से कम 21 साल तक उसने हैहयों को तंग किया होगा। परशुराम प्रबल श्शत्रु था परंतु हैहय ऐसे वैसे नहीं थे, इधर वह काटता जाता था उधर वे बढ़ते जाते थे। परशुराम अपने न में यही गुमान करता था कि मैंने उन्हें समूल उखाड़ डाला। यथार्थ में परशुराम के बुढ़ापा काल में हैहय बहुत प्रबल हो गये थे और उनके वंशज कई ओर फैल गये थे उनमें से एक ने माहिष्मती की शान का दूसरा स्थान नर्मदा नदी के ही तीर ढूंढ निकाला और वहां पर त्रिपुरी नाम की नगरी स्थापित की।
यह जबलपुर जिले में प्रख्यात भेड़ाघाट के पास वर्तमान तेवर नाम से जाहिर है। यही कलचुरियों की राजधानी बनी। कलचुरियों ने अपना संवत् 248 ई. में स्थापित किया था, परंतु ठीक-ठीक यह पता अभी तक नहीं गया कि वे त्रिपुरी में किस समय आये। कलचुरियों के जो अनेक ताम्रपत्र व शिलालेख मिले हैं उनके प्रकट होता है कि कोकल्लदेव के समय से त्रिपवुरी का वैभव बढ़ा। इस राजा का समय खीष्टीय नवीं शताब्दी के अंत में पड़ता है।
कोकल्लदेव के 18 पुत्र हुये। जेठे पुत्र को त्रिुपरी की गद्दी मिली। शेष को एक-एक मण्डल परवरिश के लिये दे दिया गया। तालुक या तहसील को मण्डल कहते थे। मण्डल के अधिकारी माण्डलिक कहलाते थे और वे मूल गद्दी के अधिकारी के अधीन रहते थे। त्रिपुरी के निकट का मण्डल जो वर्तमान मण्डला जिले में पड़ता था एक भाई को मिला जिसने नर्मदाा और बंजर के संगम पर अपने मण्डल के नाम से एक नगर बसाया जो अब मण्डला कहलाता है
। इस प्रकार निदान एक हजार वर्ष पूर्व से मण्डला में कलचुरी राज्य स्थापित हो गया। स्थानीय मांडलिक राजाओं के शासन का इतिहास तो अब उपलब्ध नहीं हैं, परंतु मूल घराने की कृतियों का वर्णन अनके शिला व ताम्रलेखों में मिलता है।
कोकल्लदेव का जेठा पुत्र प्रसिद्ध धवल अथवा मुग्धतुंग था। ‘‘जब वह दिग्विजय को निकला तब वह कौन सा देश है जिसको उसने जीता नहीं ?उसका चित मलय (मलावर) की ओर खिंचा क्योंकि समुद्र की तरंगे वहीं अपनी कला दिखलाती है वहीं करेल की युवतियां क्रीडा करती हैं वहीं भुजंग चंदन के वृक्षों की सुगंध लूटते हैं। दक्षिण ही को नहीं वह पूर्वी समुद्र की ओर भी बढ़ा और बंगाल की खाड़ी तक अपना दबदबा जमा लिया।
युवराजदेव प्रथम
मुग्धतुंग के पश्चात् उसका लड़का बालहर्ष राजा हुआ, वह बहुत दिन नहीं जिलया। उसकी मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र केयरवर्ष गद्दी पर बैठा। इसका दूसरा नाम युवराजदेव था। इसने कैलास से लेकर सेतुबन्ध तक और पश्चिम की ओर समुद्र तक अपने शस्त्रों से शत्रुओं के हृदय में पीड़ा उत्पन्न कर दी
। युवराजदेव का विवाह चालुक्य (सोलंकी) राजा अवन्ति वम्र्भन की पुत्री नोहला देवी से हुआ। नोहला दान पुण्य बहुत किया करती थी उसने शिव का एक मंदिर बनवाया जिसके भोग के लिये सात गांव लगा दिये परंतु युवराजदेव इससे कई गुना बढ़कर दानी निकला उसने एक मठ के लिये 3 लाख गांव दे दिये। वह गोलगिरी अथवा गोलकी मठ कहलाता था जिसको अब चैंसठ जोगिनी का मंदिर कहते हैं। यह त्रिपुरी के पास भेड़ाघाट में अब भी विद्यमान है। परन्तु अब 3 लाख गांवों को पदारंख (पादाध्र्य) का पता नहीं, केवल छोटे-छोटे तीन गांव लगे हैं। ये भी भोंसले ने मंदिर का महत्व देखकर पूजा के लिये लगा दिये थे।
गोलकी मठ के आचार्य पाशुपत-पंथी शैव थे। अब एक दशनामी गुसाई महन्ती करता है जो निहंगी गद्दी पर तीन-तीन लुगाईंया रखकर बेरंगी ढंग जमाये हैं। कहां मठ के प्रथम अधिष्ठाता साचारादर्श जितेन्द्रिय सद्भाव शंभु जिनके चरणोदक के लिये मालवा से मद्रास के बीच के नृपति शिरोमणि लालयित रहते थे।
लक्ष्मणराज
कहां वर्तमान समय के मदन-मस्त महन्त युवराजदेव का पुत्र लक्ष्मणराज हुआ। पूर्वी राजाओं से उसने युद्ध ठाना और उड़ीसा के राजा से कालिया की रत्न-जडि़त मूर्ति छीन कर काठियावाड़ के सोमनाथ के मंदिर को समर्पित कर दी। प्राचीनकाल पराजित राजा का देश बिल्कल छीन नहीं लिया जाता था। इसलिये वे लोग संभल कर फिर लड़ने का उद्दत हो उठते थे। इसी कारण से लक्ष्मणराज को बंगाल, पाण्ड्य (मदुरा) लाट (गुजरात) और काश्मीपर पर पुनः आक्रमण करके पराजित करना पड़ा।
लक्ष्मणराज के रो पुत्र राजा हुए पहले शंकरण्गया और उसके मरने पर युवराजदेव द्वितीय। इस युवराजदेव द्वितीय को चेदीन्दु कहते थे अर्थात् चेदि देश का चन्द्रमा। कलचुरियों के देश का प्राचीन नाम चेदि था जिसमें बुंदेलखंड, बघेलखंड़ और छत्तीसगढ़ के भाग सम्मिलित थे। चेदि की वृद्धि के लिये चेदीन्दु ने क्या किया इसका कुछ पता नहीं लगता उसके लड़के कोकल्लदेव द्वितीय के समय में भी किसी गौरवान्वित काम का उल्लेख नहीं पाया जाता।
गांगेयदेव विश्वविजयी
परन्तु कोकल्ल का लड़का गांगेदय देव निसंस्देह प्रभावशाली निकला। उसने अपने वंश का गौरव इतना बढ़ाया कि उसके शत्रु भी उसे विश्व विजयी कहने लगे असल में उसी ने कलचुरि सामा्रज्य की नीवं जमाई उसने चढ़ाई करके प्रायः समस्त उत्तरीय भारत को अपने अधीन कर लिया ओर बंगाल, उड़ीसा, दक्षिण हैदराबाद के निकटस्थ कुन्तल इत्यादि के राजाओं को पराजित किया। उत्तर हिन्दुस्थान का बहुत सा भाग अपने अधिकार में कर लेने के कारण वह प्रयास में रहने लगा और वहीं पर अक्षयवट के निकट सन् 1041ई. में अपनी सौ रानियों के साथ मोक्ष पाया।
सम्राट कर्णदेव
गांगेय का लड़का कर्णदेव अपने बाप से भी अधिक प्रतापी निकला। उसे भारतीय नेपोलियन कहते हैं उसने भारत वर्ष के सभी राजाओं पर धावाा कर डाला और सबों को अपने वश में कर लिया। पाण्ड्य, चोल, मुरल, कीर, कुंग, वंग, कलिंग, गुर्जर, हूण सभी अपनी हेकड़ी भूल गये और इन सभी देशों के राजाओं ने प्रतापशाली कर्ण के चरणों पर माथा नवाया। रासमाला में लिखा है कि 136 राजा उसके चरण कमलों की पूजा करते थे।
त्रिपुरी भारत वर्ष के बिल्कुल मध्य में पड़ती है। नेपाल से वह उतनी ही दूर है जितनी कन्या कुमारी से। इसी प्रकार उसकी दूरी बंगाल की खाड़ी से उतनी ही है जितनी अरब समुद्र से। इसके केन्द्र पर बैठकर कर्ण ने समस्त भारत के राजाओं को नाच नचाया और त्रिुपरी को भारतीय बल का यथार्थ केन्द्र बनाकर दिखला दिया।
यमुना और नर्मदा के बीच का प्रांत डाहल मण्डल कहलाता था जो खाम अर्थात् खास त्रिपुरी नरेश की पैतृक जायदाद थी। इसी जायदाद से तीन लाख गांव गोलकी मठ को दिये गये थे। कर्ण नाम के कई राजा हो गये हैं इसलिये यह सम्राट कर्ण डहरिया कहलाता था। कर्ण शरणागतों का यथोचित मान करता थां परन्तु जहां उसने ऐंठ देखी वहां उसने पूर्ण रूप से दलन किया। उसने किसी कारण से कलिंग देश पर अपना पूर्ण रूप से अधिकार जमा लिया और तब से अपने नाम के आगे त्रिकलिंगाधिपति लिखने लगा। यह उपाधि इस वंश में अंत तक स्थिर रही
। गांगेयदेव ने जिस प्रकार प्रयाग पर अभिरूचि दिखलाई उसी प्रकार कर्ण ने काशी को श्रेय दिया और वहां पर एक बारह मजिला शिवालय बनवाया जा ेउस जमाने में अद्वितीय समझा जाता था उसका नाम कर्ण मेरू रख गया। उसके खंडहर वरूणा और गंगा के संगम के निकट है। कर्ण काशी को भारत की राजधानी बनाना चाहता था। परन्तु अंत में उसे त्रिपुरी से हटने का साहस नहीं हुआ। इसलिये काशी भारत के साम्राज्य का केन्द्र होते होते रह गई।
कलचुरी हैहयवंशी राजाओं की एक शाखा है। इस वंश का आदि पुरूष सहस्त्रार्जुन कार्तवीय्र्य था। जो माहिष्मती में राम, परशुराम के जमाने में राज्य करता था। निमाड़ जिले का मान्धता ही माहिष्मती कहलाता था। सब लोगों को विदित है कि परशुराम ने कार्तवीय्र्यसे बैर ठानकर क्षत्रियों पर 21 बार आक्रमण किया परन्तु हैहय उसके मिटाने न मिटे। यदि परशुराम सालाना आक्रमण करता रहा हो तो कम से कम 21 साल तक उसने हैहयों को तंग किया होगा। परशुराम प्रबल श्शत्रु था परंतु हैहय ऐसे वैसे नहीं थे, इधर वह काटता जाता था उधर वे बढ़ते जाते थे। परशुराम अपने न में यही गुमान करता था कि मैंने उन्हें समूल उखाड़ डाला। यथार्थ में परशुराम के बुढ़ापा काल में हैहय बहुत प्रबल हो गये थे और उनके वंशज कई ओर फैल गये थे उनमें से एक ने माहिष्मती की शान का दूसरा स्थान नर्मदा नदी के ही तीर ढूंढ निकाला और वहां पर त्रिपुरी नाम की नगरी स्थापित की।
यह जबलपुर जिले में प्रख्यात भेड़ाघाट के पास वर्तमान तेवर नाम से जाहिर है। यही कलचुरियों की राजधानी बनी। कलचुरियों ने अपना संवत् 248 ई. में स्थापित किया था, परंतु ठीक-ठीक यह पता अभी तक नहीं गया कि वे त्रिपुरी में किस समय आये। कलचुरियों के जो अनेक ताम्रपत्र व शिलालेख मिले हैं उनके प्रकट होता है कि कोकल्लदेव के समय से त्रिपवुरी का वैभव बढ़ा। इस राजा का समय खीष्टीय नवीं शताब्दी के अंत में पड़ता है।
कोकल्लदेव के 18 पुत्र हुये। जेठे पुत्र को त्रिुपरी की गद्दी मिली। शेष को एक-एक मण्डल परवरिश के लिये दे दिया गया। तालुक या तहसील को मण्डल कहते थे। मण्डल के अधिकारी माण्डलिक कहलाते थे और वे मूल गद्दी के अधिकारी के अधीन रहते थे। त्रिपुरी के निकट का मण्डल जो वर्तमान मण्डला जिले में पड़ता था एक भाई को मिला जिसने नर्मदाा और बंजर के संगम पर अपने मण्डल के नाम से एक नगर बसाया जो अब मण्डला कहलाता है
। इस प्रकार निदान एक हजार वर्ष पूर्व से मण्डला में कलचुरी राज्य स्थापित हो गया। स्थानीय मांडलिक राजाओं के शासन का इतिहास तो अब उपलब्ध नहीं हैं, परंतु मूल घराने की कृतियों का वर्णन अनके शिला व ताम्रलेखों में मिलता है।
कोकल्लदेव का जेठा पुत्र प्रसिद्ध धवल अथवा मुग्धतुंग था। ‘‘जब वह दिग्विजय को निकला तब वह कौन सा देश है जिसको उसने जीता नहीं ?उसका चित मलय (मलावर) की ओर खिंचा क्योंकि समुद्र की तरंगे वहीं अपनी कला दिखलाती है वहीं करेल की युवतियां क्रीडा करती हैं वहीं भुजंग चंदन के वृक्षों की सुगंध लूटते हैं। दक्षिण ही को नहीं वह पूर्वी समुद्र की ओर भी बढ़ा और बंगाल की खाड़ी तक अपना दबदबा जमा लिया।
युवराजदेव प्रथम
मुग्धतुंग के पश्चात् उसका लड़का बालहर्ष राजा हुआ, वह बहुत दिन नहीं जिलया। उसकी मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र केयरवर्ष गद्दी पर बैठा। इसका दूसरा नाम युवराजदेव था। इसने कैलास से लेकर सेतुबन्ध तक और पश्चिम की ओर समुद्र तक अपने शस्त्रों से शत्रुओं के हृदय में पीड़ा उत्पन्न कर दी
। युवराजदेव का विवाह चालुक्य (सोलंकी) राजा अवन्ति वम्र्भन की पुत्री नोहला देवी से हुआ। नोहला दान पुण्य बहुत किया करती थी उसने शिव का एक मंदिर बनवाया जिसके भोग के लिये सात गांव लगा दिये परंतु युवराजदेव इससे कई गुना बढ़कर दानी निकला उसने एक मठ के लिये 3 लाख गांव दे दिये। वह गोलगिरी अथवा गोलकी मठ कहलाता था जिसको अब चैंसठ जोगिनी का मंदिर कहते हैं। यह त्रिपुरी के पास भेड़ाघाट में अब भी विद्यमान है। परन्तु अब 3 लाख गांवों को पदारंख (पादाध्र्य) का पता नहीं, केवल छोटे-छोटे तीन गांव लगे हैं। ये भी भोंसले ने मंदिर का महत्व देखकर पूजा के लिये लगा दिये थे।
गोलकी मठ के आचार्य पाशुपत-पंथी शैव थे। अब एक दशनामी गुसाई महन्ती करता है जो निहंगी गद्दी पर तीन-तीन लुगाईंया रखकर बेरंगी ढंग जमाये हैं। कहां मठ के प्रथम अधिष्ठाता साचारादर्श जितेन्द्रिय सद्भाव शंभु जिनके चरणोदक के लिये मालवा से मद्रास के बीच के नृपति शिरोमणि लालयित रहते थे।
लक्ष्मणराज
कहां वर्तमान समय के मदन-मस्त महन्त युवराजदेव का पुत्र लक्ष्मणराज हुआ। पूर्वी राजाओं से उसने युद्ध ठाना और उड़ीसा के राजा से कालिया की रत्न-जडि़त मूर्ति छीन कर काठियावाड़ के सोमनाथ के मंदिर को समर्पित कर दी। प्राचीनकाल पराजित राजा का देश बिल्कल छीन नहीं लिया जाता था। इसलिये वे लोग संभल कर फिर लड़ने का उद्दत हो उठते थे। इसी कारण से लक्ष्मणराज को बंगाल, पाण्ड्य (मदुरा) लाट (गुजरात) और काश्मीपर पर पुनः आक्रमण करके पराजित करना पड़ा।
लक्ष्मणराज के रो पुत्र राजा हुए पहले शंकरण्गया और उसके मरने पर युवराजदेव द्वितीय। इस युवराजदेव द्वितीय को चेदीन्दु कहते थे अर्थात् चेदि देश का चन्द्रमा। कलचुरियों के देश का प्राचीन नाम चेदि था जिसमें बुंदेलखंड, बघेलखंड़ और छत्तीसगढ़ के भाग सम्मिलित थे। चेदि की वृद्धि के लिये चेदीन्दु ने क्या किया इसका कुछ पता नहीं लगता उसके लड़के कोकल्लदेव द्वितीय के समय में भी किसी गौरवान्वित काम का उल्लेख नहीं पाया जाता।
गांगेयदेव विश्वविजयी
परन्तु कोकल्ल का लड़का गांगेदय देव निसंस्देह प्रभावशाली निकला। उसने अपने वंश का गौरव इतना बढ़ाया कि उसके शत्रु भी उसे विश्व विजयी कहने लगे असल में उसी ने कलचुरि सामा्रज्य की नीवं जमाई उसने चढ़ाई करके प्रायः समस्त उत्तरीय भारत को अपने अधीन कर लिया ओर बंगाल, उड़ीसा, दक्षिण हैदराबाद के निकटस्थ कुन्तल इत्यादि के राजाओं को पराजित किया। उत्तर हिन्दुस्थान का बहुत सा भाग अपने अधिकार में कर लेने के कारण वह प्रयास में रहने लगा और वहीं पर अक्षयवट के निकट सन् 1041ई. में अपनी सौ रानियों के साथ मोक्ष पाया।
सम्राट कर्णदेव
गांगेय का लड़का कर्णदेव अपने बाप से भी अधिक प्रतापी निकला। उसे भारतीय नेपोलियन कहते हैं उसने भारत वर्ष के सभी राजाओं पर धावाा कर डाला और सबों को अपने वश में कर लिया। पाण्ड्य, चोल, मुरल, कीर, कुंग, वंग, कलिंग, गुर्जर, हूण सभी अपनी हेकड़ी भूल गये और इन सभी देशों के राजाओं ने प्रतापशाली कर्ण के चरणों पर माथा नवाया। रासमाला में लिखा है कि 136 राजा उसके चरण कमलों की पूजा करते थे।
त्रिपुरी भारत वर्ष के बिल्कुल मध्य में पड़ती है। नेपाल से वह उतनी ही दूर है जितनी कन्या कुमारी से। इसी प्रकार उसकी दूरी बंगाल की खाड़ी से उतनी ही है जितनी अरब समुद्र से। इसके केन्द्र पर बैठकर कर्ण ने समस्त भारत के राजाओं को नाच नचाया और त्रिुपरी को भारतीय बल का यथार्थ केन्द्र बनाकर दिखला दिया।
यमुना और नर्मदा के बीच का प्रांत डाहल मण्डल कहलाता था जो खाम अर्थात् खास त्रिपुरी नरेश की पैतृक जायदाद थी। इसी जायदाद से तीन लाख गांव गोलकी मठ को दिये गये थे। कर्ण नाम के कई राजा हो गये हैं इसलिये यह सम्राट कर्ण डहरिया कहलाता था। कर्ण शरणागतों का यथोचित मान करता थां परन्तु जहां उसने ऐंठ देखी वहां उसने पूर्ण रूप से दलन किया। उसने किसी कारण से कलिंग देश पर अपना पूर्ण रूप से अधिकार जमा लिया और तब से अपने नाम के आगे त्रिकलिंगाधिपति लिखने लगा। यह उपाधि इस वंश में अंत तक स्थिर रही
। गांगेयदेव ने जिस प्रकार प्रयाग पर अभिरूचि दिखलाई उसी प्रकार कर्ण ने काशी को श्रेय दिया और वहां पर एक बारह मजिला शिवालय बनवाया जा ेउस जमाने में अद्वितीय समझा जाता था उसका नाम कर्ण मेरू रख गया। उसके खंडहर वरूणा और गंगा के संगम के निकट है। कर्ण काशी को भारत की राजधानी बनाना चाहता था। परन्तु अंत में उसे त्रिपुरी से हटने का साहस नहीं हुआ। इसलिये काशी भारत के साम्राज्य का केन्द्र होते होते रह गई।
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