जयपुर में पुराने राजमहल 'चन्द्रमहल' से जुडी एक आश्चर्यजनक मध्यकालीन
उपलब्धि है-जंतर मंतर! प्राचीन खगोलीय यंत्रों और जटिल गणितीय संरचनाओं के
माध्यम से ज्योतिषीय और खगोलीय घटनाओं का विश्लेषण और सटीक भविष्यवाणी करने
के लिए दुनिया भर में मशहूर इस अप्रतिम वेधशाला का निर्माण जयपुर नगर के
संस्थापक आमेर के राजा सवाई जयसिंह (द्वितीय) ने 1728 में अपनी निजी देखरेख
में शुरू करवाया था, जो सन 1734में पूरा हुआ था। सवाई जयसिंह एक खगोल
वैज्ञानिक भी थे, जिनके योगदान और व्यक्तित्व की प्रशंसा जवाहर लाल नेहरू
ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'डिस्कवरी ऑफ इंडिया' ('भारत : एक खोज') में
सम्मानपूर्वक की है। सवाई जयसिंह ने इस वेधशाला के निर्माण से पहले विश्व
के कई देशों में अपने सांस्कृतिक दूत भेज कर वहां से खगोल-विज्ञान के
प्राचीन और महत्वपूर्ण ग्रंथों की पांडुलिपियाँ मंगवाईं थीं और उन्हें अपने
पोथीखाने (पुस्तकालय) में संरक्षित कर अपने अध्ययन के लिए उनका अनुवाद भी
करवाया था। महाराजा सवाई जय सिंह द्वितीय ने हिन्दू खगोल शास्त्र में आधार
पर देश भर में पांच वेधशालाओं का निर्माण कराया था। ये वेधशालाएं जयपुर,
दिल्ली, उज्जैन, बनारस और मथुरा में बनवाई गई। इन वेधशालाओं के निर्माण में
उन्होंने उस समय के नामी-गिरामी खगोशास्त्रियों की मदद ली थी। सबसे पहले
महारजा सवाई जय सिंह (द्वितीय) ने उज्जैन में सम्राट यन्त्र का निर्माण
करवाया, उसके बाद दिल्ली स्थित वेधशाला (जंतर-मंतर) और उसके दस वर्षों बाद
जयपुर में जंतर-मंतर का निर्माण करवाया था। देश की सभी पांच वेधशालाओं में
जयपुर की वेधशाला सबसे बड़ी है। इस वेधशाला के निर्माण के लिए 1724 में
कार्य प्रारम्भ किया गया और 1734 में यह निर्माण कार्य पूरा हुआ।[1]
यह बाकी के जंतर मंत्रों से आकार में तो विशाल है ही, शिल्प और यंत्रों की
दृष्टि से भी इसका कई मुकाबला नहीं है! सवाई जयसिंह निर्मित पांच
वेधशालाओं में आज केवल दिल्ली और जयपुर के जंतर मंतर ही शेष बचे हैं, बाकी
काल के गाल में समा गए हैं।
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